अब्र तक उठी घटाएँ
अब्र तक उठी घटाएँ ज़मीं पर ही आनी थी
इश्क़ ऐसा किया कि अब पानी - पानी थी।।
पीली धूप को बाग़ के फूलों ने चुरा लिया
बचा जो सूरज था वो दरिया ने खा लिया।।
सिंदूरी शाम से नदी ने मोती जोड़ लिए
और फिर रात ने सैंकड़ों तारे ओढ़ लिए
चाँद को देखकर चक्कर सारी चकोरी खा गई
अभी घर से निकली भर थी कि मौत आ गई।।
बड़ी मिन्नतों से चाहत का इक पौधा लगाया
सब्ज़ पड़ते ही न जाने कहाँ से पतझड़ आया।।
कलियों के खिलने की उम्मीदें डर गई
और कोंपल फूटने से पहले ही मर गई।।
अब्र तक उठी फिर घटाएँ और फिर से सावन आया
पानी- पानी हो गई प्यासी ज़मीं ऐसा इश्क़ लड़ाया।।
गौरव प्रकाश सूद ।।
#दर्दकाकारवां
#ऐसावैसाwriter
19 जनवरी 2023
11:00 pm
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