अकेला

मैं जीवन में उस अकेलेपन को भोग रहा हूँ
जहाँ कोई भी मेरे पास होता तो मैं उसे अपने से बांध लेता सदा के लिए। वो चाहे जैसा भी होता, मेरे जैसा, मुझसे विपरित, अच्छा - बुरा जो भी, बस होता। पर सत्य तो ये है कि कोई नहीं है यहाँ, माँ-पापा, भाई - बहन का विचार भी आता है परंतु इन सबके जीवन में भी अपनी-अपनी लड़ाई हैं और मेरे अंतर्द्वंद को जानकर इनकी चिंता बढ़े ये मैं नहीं चाहता।
कितनी बार अपने आप को मैं एक चलती फिरती लाश के समान पाता हूँ। मुझे बार-बार ऐसा प्रतीत होता है जैसे शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के देवदास ने मेरे भीतर एक जगह पा ली है।
पर मेरा ऐसा मानना भी ठीक नहीं यद्यपि मेरे पास कोई चंद्रमुखी नहीं जो अपने दामन से मेरे अश्रू पोंछने को तैयार हो, न कोई पारो जिसने मुझे कभी कहा हो कि "देव मुझे जीवन में एक बार सेवा का अवसर अवश्य देना।" और न ही कोई चुन्नी बाबू जो यदा-कदा मृत जीवन में प्राण भर सके।
ऐसा नहीं है कि जीवन में लोग नहीं आए।
कितने ही आए, मेरे व्यक्तित्व से प्रभावित हुए, मुझसे प्रेम के प्रण भरें और फिर इसी व्यक्तित्व से ऊब कर चले गए। मैंनें कितना रोका परंतु जाने वालों को कौन रोक सकता है? 
और अब किसी के आने की कोई संभावना ही नहीं बची।
                                     गौरव प्रकाश सूद 
#दर्दकाकारवां 
#ऐसावैसाwriter
07 दिसम्बर 2022
10:50 pm

Comments

Popular posts from this blog

धुंधली पड़ती तस्वीरें

"कहीं के नहीं रहे"

दिल्ली सरकार, आप की सरकार