इश्क़ कहीं नहीं

मैंनें पहाड़ चढ़े, नदियाँ छानी
रास्ते नापे, हवा को समझा
धूप को ताड़ा और छाँव को बांधा।
पर नहीं बांध पाया अपने
सूने मन को अब-तक
जो तलाश में निकला था
वो तलाश जो बेमतलब थी
बेमानी थी और
उम्र ज़ाया करने का एक
सटीक तरीक़ा थी।
जिसे मैं बरसों पहले समझ चुका था
कि ये हर हाल में नाकाम कोशिश है
ज़िंदगी को संवारने की
पर बात मेरे नहीं मन के बस में थी।
जिसकी इसे खोज है वो
कहीं है ही नहीं
रहा होगा जो कभी
मीरा, सोनी और सीता के रूप में
पर आज नहीं।
वो अब मन में नहीं पाया जाता
आँखों में भी नहीं मिलता
हाँ, क़िताबों में सबको अब भी भाता है
जो कहीं भी न मिला
उसे इश्क़ कहा जाता है।

             गौरव प्रकाश सूद 
#ऐसावैसाwriter

05 अप्रैल 2022

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