"आँसूं"

दिख रही हैं मुझे वो लपटे चिताओं की
जो दूर कहीं फैली हैं और भड़का रही हैं 
मेरे माथे को कोसो दूर होकर भी 
पड़ रहीं हैं चींखें कानों में उस बच्ची की
जो शायद अभी-अभी अनाथ हुई है और 
भटक रही है सड़कों पर मौत के तांडव देखती 
वो माँ जो अपनी तड़पती रूह को लिए लौट चुकी है 
जो विधवा होते ही मर गई और पीछे छोड़ गई एक अनाथ बच्ची 
दिख रहा है मुझे वो सहमा सा बेटा, जो बार-बार घड़ी देखकर
कह रहा है ख़ुद से "पापा अभी हैं"
और बिलखती बुढ़िया जो ढूंढती फिर रही है अपने लाल का
मुर्दा शरीर.. 
एक बाप जिसे उठने नहीं देता था बेटा
आज उठा रहा है गहरी नींद में सोए उसी बेटे को
दौड़ रही है जवान बेटी कहीं अपने पिता की साँस के मारे
लगा रही है गुहार सबसे और कोस रही है
देश के अपाहिज़ पड़े सिस्टम और गुंगें, बहरे, अंधे, काणे, लंगड़े
रहबरों को जो कसमें खाया करते थे कल-तक
के "जब भी पुकारोगे चले आएंगे हम" 
अब ग़हरी नींद में सो रहें हैं कहीं, 
कानों में उनके जूं नहीं रेंगती
सुन सकता हूँ उनके खर्राटे भी मैं साफ़ - साफ़ 
जो मेरे कानों को खा रहे हैं और कूंट रहें हैं अंगारे 
मेरे सीने में इस तरह जैसे 
तैयार करते हो बारूद अपना ही घर जलाने को 
और मैं मृत सा पड़ा कुछ कर ही नहीं सकता 
सिवाए 
"आँसूं बहाने के"।। 

#दर्दकाकारवां 
#ऐसावैसाwriter 
25 अप्रैल 2021

Comments

Popular posts from this blog

धुंधली पड़ती तस्वीरें

"कहीं के नहीं रहे"

दिल्ली सरकार, आप की सरकार