अधूरी

मैं तुझसे नाराज़ तो नहीं 
पर ये ज़ुल्फ़ों के साए अब रास नहीं आते 
दूर हो जाते हैं क़रीबी सभी 
बस यूंही तुम्हारे पास नहीं आते

संभल के चल रहा हूँ, बड़े गहरे गड्ढें हैं मेरे रास्ते
ऐसी राहगुज़र में, साए भी साथ नहीं आते

मैं तो अपनों को साथ न ले सका
तो तो ख़ैर ग़ैर है फिर भी 

चाहे हर स्याह रात के बाद
सहर है फिर भी 



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