ये जो घर से बाहर के लोग होते हैं न, ये कहीं के नहीं होते। कुछ बनने के लिए, कुछ करने के लिए बाहर चले जाते हैं और वहाँ भी बाहर के ही रहते हैं। कभी-कभी, किसी बहाने से घर आते हैं, पर घर अब अपना रहा कहाँ, अब अपने ही घर में मेहमान से हो गए हो। कहने को ठीकाने दो-दो होते हैं, एक घर और एक बाहर पर सच में तो इनका कोई ठिकाना होता ही नहीं। सालों लगा देते हैं कोई ठौर बनाने में,पर कोई ठौर मिलती ही कहाँ है। सपने बहुत आते हैं पर निंद पलभर भी नहीं प्यार सबसे करते हैं पर पास कोई भी नहीं कभी-कभी लगता है कोई साथी भी है शायद पर साथ कौन होता है। जैसे एक सांस आने के बाद उसका लौटना ज़रूरी होता है न ठीक वैसे ही ज़रुरी हो जाता है घर से वहाँ लौटना जहाँ ये रहते हैं या जीते हैं या बस जीवन काट रहें होते हैं । वही जो इनका घर नहीं आफ़िस होता है और कोई अपने काम से या आफ़िस से कितना भी प्यार करता हो लेकिन वहाँ से लौटना ज़रूरी है। पर अब लौटे कहाँ, अब ये अपने शहर-अपने गाँव में मेहमान से हो गए हैं, अब न इनको अपना घर अपना लगता है, न शहर न गाँव, घर के जिस कौने या क़मरे को ये अपना समझा करते थे, अब वो भी इनको भूल गय...
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