हाला
पर्बत, जंगल नप जाते हैं सागर की भी कोई औक़ात नहीं
गहराई आँखों की नापना ये सबके तो बस की बात नहीं।।
पी पीकर पैमानों से जिस्म सब बिख़र-बिख़र से जाते हैं
कम ही होते हैं जाम कोई जो बिन पीये ही चढ़ जाते हैं।।
तुम वही जाम हो आँखें तुम्हारी कुछ अलग़ ही मय टपकाती है
ऐसी हाला जिससे मदिरा सब जल जलकर जल जाती है।।
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